जैसे फिल्म निर्देशक महेश भट्ट और उनके भाई फिल्म निर्माता मुकेश भट्ट की जोड़ी वाली कंपनी विशेष फिल्म्स को फिल्म ‘राज’ से हॉरर का एक नया फॉर्मूला मिला, वैसे ही अजय देवगन को फिल्म ‘शैतान’ ने एक नया पाठ पढ़ाया है। हिंदी सिनेमा की मुख्यधारा के कलाकारों को हॉरर फिल्मों में देखने के लिए उनके प्रशंसक शुरू से लालायित रहे हैं। मिथुन चक्रवर्ती की फिल्म ‘भयानक’ से इसकी शुरुआत मानी जा सकती है लेकिन सावित्री और सत्यवान की पौराणिक कथा पर बनी फिल्म ‘राज’ ने जो कमाल किया, वैसा दूसरा उदाहरण बनना हिंदी सिनेमा में अभी बाकी है। विशाल फूरिया की ‘छोरी’ फ्रेंचाइजी चल निकली है। वहां उन्होंने बेटियों के खिलाफ गांवों में बने सामाजिक माहौल को अपनी कहानी का आधार बनाया है। फिल्म ‘मां’का डीएनए भी वही है, बस इस बार कहानी में ‘मुंजा’ जैसा एक दैत्य भी है।
अपनी बेटी के लिए काली बनी मां
नवरात्रि में दुर्गा सप्तशती का पाठ करने वाले जानते हैं कि शक्ति का काली स्वरूप क्या है, क्यों है और प्रकृति में सज्जन और दुर्जन के संतुलन के लिए कितना जरूरी है? रक्तबीज की कहानी भी इसी संदर्भ में खूब सुनी-सुनाई जाती है। विशाल फूरिया ने अपने साइवन क्वॉद्रस, आमिल खान, अजित जगताप के साथ मिलकर इसी कहानी के आसपास बंगाल के किसी चंद्रपुर नामक काल्पनिक गांव में एक अलग संसार रचा है। कहानी ये चार दशक पहले शुरू होती है, जब कन्याओं की बलि दे दी जाती थी। ये बलि भले यहां शब्दश: हो लेकिन गांव-देहात में बेटियों को जन्मते ही मार देने के तरीके तमाम रहे हैं। काजोल यहां उस बिटिया की मां बनी है, जिससे उसकी बुआ की बलि के तार जुड़ते हैं। उसके पिता और उनकी बहन की ये कहानी क्या है? क्यों जन्मते ही उसकी बलि दे दी गई? अब ये मां-बेटी क्यों कर चंद्रपुर वापस पहुंची हैं और घर के मुखिया का क्या होता है? ये सब एक थ्रिलर कहानी के अलग-अलग अवयव हैं। फिल्म का प्रचार हॉरर फिल्म की तरह किया गया है, जिसके चलते दर्शक सीन दर सीन किसी न किसी तरह के ‘जंप स्केयर’ की राह तकते रहते हैं, लेकिन मामला ऐसा कुछ है नहीं, सिवाय ठीक क्लाइमेक्स के पहले तक
काजोल के कंधों पर टिकी पूरी फिल्म
एक मायावी थ्रिलर फिल्म के रूप में विशाल फूरिया निर्देशित फिल्म ‘मां’ मनोरंजन करने में सफल है। करीब सवा दो घंटे की ये फिल्म चूल्हे पर चढ़ी हांडी में पकती दाल सरीखी है। आंच फूरिया ने कम रखी है और इसीलिए इसके पकने में थोड़ी देर भी लगती है। फिल्म के पोस्टर पर काजोल ही दिखती रही हैं, लिहाजा ये फिल्म उनकी ही है। काजोल ने फिल्म को अपने अकेले कंधे पर ढोया भी है। उनकी दूसरी पारी फिल्म दर फिल्म मजबूत हो रही है। महिलाप्रधान फिल्मों का झंडा हिंदी सिनेमा में विद्या बालन, तापसी पन्नू और कृति सैनन जैसी अभिनेत्रियां खूब फहराती रही हैं। ‘तीन पत्ती’ में साझा प्रयास के बाद काजोल ने अब ये परचम अकेले थामा और खूब थामा है। इंद्रनील सेनगुप्ता के साथ वाले दृश्यों में भले दोनों की पति-पत्नी सरीखी केमिस्ट्री जमती न दिखती हो लेकिन खेरिन के साथ काजोल ने गजब जादू जगाया है। बेटी को बचाने के लिए मां कुछ भी कर सकती है और काली सी शक्ति धारण करना ऐसी मां के लिए क्या ही चुनौती बन सकता है।
कलाकारों की मंडली भी खूब जमी
अभिनय के लिहाज से ये फिल्म काजोल को पुरस्कार दिलाने वाली फिल्म है। इंद्रनील सेनगुप्ता ने अपने हिस्से का काम अच्छा निभाया है। यहां चौंकाने वाली अदाकारी की है रोनित रॉय ने। उनका सरपंची स्वरूप देखने लायक है। गोपाल सिंह भी अरसे बाद किसी हिंदी फिल्म में नोटिस हुए हैं। विभा रानी का किरदार भी जोरदार है। जितिन गुलाटी के किरदार पर और मेहनत की जा सकती थी। फिल्म ‘मां’ एक सबक ये भी है कि इस तरह की कहानियों में कलाकारों के अपने चेहरे मोहरे देखते हुए अगर कास्टिंग न की जाए तो कलाकारी का असर बेहतर हो सकता है। जिन चेहरों को दर्शक सोशल मीडिया पर अक्सर रोज रंग बदलते देखते हैं, उन चेहरों को उनके इस सेट आडंबर से अलग रंग देना बहुत जरूरी है।
विजुअल इफेक्ट्स में मार खा गई फिल्म
फिल्म ‘मां’ को जमाने मे जितनी मेहनत काजोल और विशाल फूरिया ने की है, उतनी मेहनत इसकी राइटिंग टीम की यहां नही दिखती। काली और रक्तबीज का संदर्भ और मजबूती से यहां स्थापित किया जा सकता था और इसके लिए फिल्म को बंगाल की पृष्ठभूमि में ले जाने की जरूरत ही नहीं थी। खामखां कलाकार जबर्दस्ती की बंगाली बोलते पकड़े जाते हैं। इस बड़ी कमी को फिल्म के डीओपी पुष्कर सिंह और एडीटर संदीप फ्रांसिस अपनी कुशलता से ढकने की आखिर तक कोशि करते नजर आते हैं। फिल्म का सबसे बड़ा सबक इसके निर्माता अजय देवगन के लिए है और वह ये कि उन्हें अपनी ग्राफिक्स कंपनी एनवाई वीएफएक्सवाला के लिए कुछ ऐसे युवा ग्राफिक्स आर्टिस्ट रखने चाहिए जो विश्वस्तरीय विजुअल इफेक्ट्स बना सकें। हो सके तो इसके लिए साउथ की फिल्म ‘हनुमान’ में काम करने वाले युवाओं को भी तलाशा जा सकता है। आर पी यादव ने फिल्म में कुछ अनोखे एक्शन सीन गढ़े हैं और उन पर उन्हें तालिया भी मिलती हैं। फिल्म में सुहागा का काम किया है, प्रणव वत्स के लिखे गाने ने जिस पर हर्ष उपाध्याय ने आज के जमाने के हिसाब से संगीत सजाकर फिल्म की बड़ी मदद की है।
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